कुछ रातों के घने अँधेरे, सुबह से कहाँ मिल पाते हैं।
ये शिकवे भी तो, मुक़द्दर वाले हीं कर पाते हैं,
बेचैनियों को शब्द, कहाँ अब भाते हैं।
ये कोरे अश्क जो, मन को हल्का कर जाते हैं,
पलकें पलों में, इन्हें भी तो, बोझ समझकर गिराते हैं।
ये तूफ़ान जो, उम्मीदों की कश्तियों को डुबाते हैं,
टकराते हैं साहिलों से तो, खुद को टुकड़ों में पाते हैं।
आश की उड़ान लिए, कुछ पंछी क्षितिज को लांघ जाते हैं,
जख़्मी अपने पंखों को फिर, अपनी हिम्मत में छिपाते हैं।
वक्त की चलती धुरी पर हम, कल के सपने सजाते हैं,
आज की रुस्वाई कर फिर, बीते कल को सहलाते हैं।
ख़्वाहिशें अपनी लाश का, बोझ कुछ यूँ उठाते हैं,
कि भीड़ भरी राहों में भी, कदम तन्हाईयों का साथ निभाते हैं।
दीवार की टूटी ईंटों से, नए घर बन तो जाते हैं,
पर दरार की बेबसी ऐसी, जो रह-रह कर दर्द जगाते हैं।
भोर के ओस की चाह में रातें, आँखों की नींद उड़ाते हैं,
पर कुछ रातों के घने अँधेरे, सुबह से कहाँ मिल पाते हैं।