कुछ मत कहो
कुछ मत कहो
नहीं,
आज मुझसे कोई
तस्वीर रंगने को मत कहो।
क्योंकि, हर बार
जब मैं ब्रश उठाता हूँ,
और उसे
रंग के प्याले में डूबता हूँ;
उस रंग को जब
कैनवास के
धरातल पर सजाता हूँ;
तो सिर्फ एक ही रंग होता है
अपने वतन की सीमा पर
शहीद हुए जवान के
लहू का रंग।
नहीं,
आज मुझसे कोई
मूरत गढ़ने को मत कहो।
क्योंकि,
जिस मिट्टी से
मैं उस मूरत को गढ़ता हूँ,
उससे
दुश्मन के पंकयुक्त
पैरों की
दुर्गन्ध आती है;
उसी मिट्टी को रौंदकर
कोई
भारत माँ की प्रतिमा को
छलनी करने का
प्रयास करता है।
नहीं,
मुझे आज कोई,
गीत गाने को मत कहो।
क्योंकि आज,
दोस्ती का ढोंग करके,
दुश्मनी निभाने वाले,
दगावाज सावन में,
ग़ज़ल, कज़री या दादरा नहीं,
बल्कि क्रंदन-
सिर्फ क्रंदन ही बिलखता है।
नहीं,
आज मुझसे कोई
साज़ छेड़ने करने को मत कहो।
क्योंकि, सारंगी आज
सरहद पे शहीद हुए
सिपाही की माँ के ह्रदय की तरह
चीख़-चीख़ कर फटी जाती है;
बाँसुरी
सुहाग-सेज़ पर
प्रतीक्षा करती रह गई-
दुल्हन की,
व्यथा ही सुनती है;
सितार के हर तार में
मौत की झंकार है;
वीणा के हर तार में
उस शिशु की चीत्कार है-
कि पिता जिसका सरहद पे,
खा गोली सीने पे
मर गया,
और, शहीदों की कड़ियों से जुड़कर
वो
अपना नाम
अमर कर गया।
नहीं,
आज मुझसे कुछ मत कहो।
(c) @ दीपक कुमार श्रीवास्तव “नील पदम्”