कुंभकार
मृतिका को नित गढ़ गढ़कर
देते नए-नए आकार।
धन्य हो तुम ओ कुंभकार !
हाथों में है जादू की लय
रखे कुंभ में ठंड पेय।
पीकर आह्लादित संसार
धन्य हो तुम ओ कुंभकार !
वह सुराही खड़ी इठलाती
प्यासे को है पास बुलाती।
शीतल जल से करें मनुहार
धन्य हो तुम ओ कुंभकार !
तरह-तरह के दीप बनाते
नए रंग से उन्हें सजाते।
सजीला दीपों का त्यौहार
धन्य हो तुम ओ कुंभकार !
दीपों की लगती कतारें
जीवन ज्योति तुझ पर वारे।
जगमग हर आंगन हर द्वार
धन्य हो तुम ओ कुंभकार !
मैले कपड़ों में मुस्काते
सधे हाथ से चाक चलाते।
जग को तेरी देन अपार
धन्य हो तुम ओ कुंभकार !
इतना देकर भी तू खाली
कब आई जीवन में लाली।
अभाव से है सारोकार
धन्य हो तुम ओ कुंभकार !
जग ने कब दिया तुझे मान
दुखों से कब पाए त्राण?
रत कर्म में सहकर तिरस्कार
धन्य हो तुम ओ कुंभकार !
प्रतिभा आर्य
चेतन एनक्लेव
अलवर (राजस्थान)