किसने कहा, आसान था हमारे ‘हम’ से ‘तेरा’ और ‘मेरा’ हो जाना
किसने कहा, आसान था हमारे ‘हम’ से ‘तेरा’ और ‘मेरा’ हो जाना,
सुनहरे सपनों की एक चादर थी, जिसे दो टुकड़ों में करके था दिखाना।
जमीं और आसमां के ख्वाहिशों को कहाँ मिल पाता है, एक सा ठिकाना,
कोशिशों में शिद्दतें भी हो तो, तय है उस दिन क़यामत का आना।
कश्तियों के मुकद्दर में लिखा है, बस सागर को पार करवाना,
लहरों की चाहतें जो जाग गयीं तो, मुश्किल है गहराइयों से बच पाना।
रुसवाइयाँ शामों में सिमटी है, जिन्हें मुस्कुराहटों के भ्रम में है छिपाना,
टूटते सितारों को देख कर भी, अब माँगना नहीं है दुआओं का खजाना।
खामोशियों की पनाह में सुकूं है, और झूठ से भरा है हर पैमाना,
ज़हर बन ज़िन्दगी साँसें ले रही हैं, जिसे रूह से मिले हुआ एक ज़माना।
सिसकती है गुफ्तगू यादों में कहीं, यूँ दर्द से ताल्लुक़ात हुआ है पुराना,
बेहोशी में मिलते हैं शीशे के घरोंदे, पत्थर जज्बातों को जिन्हें है ठुकराना।
सफर पूछता नहीं अब मुझसे, क्या मंजिलों को तुम्हें अब भी है पाना,
जानता है मुमकिन नहीं अब, सोये एहसासों को नींदों से जगाना।