काश !
काश !
न हम यूंँ अलग होते
न मैं जाकर मिलता; अंधेरों से, नफ़रतों से!
काश !
तुम अब भी होती मेरे साथ
समझा रहा होता तुम्हें गणित का कोई सवाल
विज्ञान का कोई नियम !
समाकलन का चिह्न
तो तुम कभी सीधा न बना पायीं
मग़र मेरी ज़िंदगी में अपनी उपस्थिति के चिह्न
इतने स्पष्ट छोड़े हैं
कि कभी भ्रम नहीं होता !
कभी कभी तो लगता है
कि ये दूरियाँ उन कविताओं का कहर हैं
जो हमने एक सुर में गुनगुनायीं थीं
विरह की कविताएंँ , दर्द की कविताएंँ !
वैसे याद है तुम्हें
वो पानी पूरी का ठेला, सड़क के किनारे
यूंँ तो हम अपने अपने पैसों से खाते थे
पर एक दिन तुम्हारे पास पैसे नहीं थे
और तुमने मुझसे मांँगे थे…. पाँच रुपए
जो मैंने दे तो दिए
लेकिन वापस….अब तक तो नहीं पाए…
.. लालची लड़की….!
-आकाश अगम