काव्य गाथा
–*काव्य गाथा*–
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कवि जब अभिभूत होता ,
शब्द की अठखेलियों से।
पाठकों का मन परखने,
तन की भी परवाह न करता।
उठती आहें गीत बनकर,
छलके आँसू प्रीत बनकर
नवरस की कल्पनाओं से,
प्रकृति का श्रृंगार करता।
रिश्ते-नाते दुखित होते,
प्रियजनों की रुसवाईयों से ।
नवसृजन श्रृंगार हेतु ,
कर्मपथ विचलित न होता l
वो समझता अन्तर्मन में,
देश कब उन्नत बनेगा।
विज्ञान युग के साथ ही,
साहित्य कब सुदृढ़ होगा।
काव्य कैसे सुन्दर सजेगा,
रस,छंद,अलंकार गूंथकर।
पाठकों के तरुण मन में,
सम्प्रेषण का हथियार बनकर।
साहित्य और इतिहास मिलकर,
देश की संस्कृति है गढ़ती।
काव्य यदि ज़ख्मित हुआ तो,
देश की सीमा सिमटती।
काव्य धरा की वो फिजा है,
रूह में है जा दहकती।
शब्दरूपी वाण बनकर ,
ब्रह्मास्त्र से ये प्रलय भी करती।
प्रेरणा से इस जगत के,
भाव चेतन को संवरती।
पर दिग्भ्रमित युवा मन ,
संधान इसका कर न पाता।
इन्टरनेट की गंदगियों से,
अंतर्मन ग्रसित जो होता।
दुश्मनों की चाल गहरी,
तरुण मन भ्रमित हुआ है।
आओ मिलकर भटके मनुज को,
काव्य की महत्ता बतायें।
संस्कृति की अमूल्य धरोहर,
काव्य रचना को समझायें ।
राष्ट्रधर्म की पुकार सुनें हम,
काव्य को निर्मल बनाएं।
सप्तसुरों में काव्य रचकर,
काव्य का संगीत गाएँ।
विलुप्त होती काव्य जगत को,
फिर से हम रोचक बनाएं।
साहित्य साधना की विधा में,
अंत्याक्षरी को फिर से गाएँ।
मौलिक एवं स्वरचित
© *मनोज कुमार कर्ण
कटिहार ( बिहार )
मोबाइल न. – 8757227201