कागज कलम
कलम से लिखे हर शब्द में समाज का दौर दिखाई देता है,
हर वर्ग की ख़ामोशी का शोर यहां कागज पर सुनाई देता है,
आधी आबादी से जुड़ा हर मुद्दा यहां बेख़ौफ़ उठाया जाता हैं,
निडर होकर जहां हर कड़वे सच को बाहर निकाला जाता हैं,
काली स्याही से जहां सफेद झूठ से बेपरवाह पर्दा उठाया जाता है,
उसी कोरे कागज पर यहां काले कारनामों को बताया जाता हैं,
जिन मुद्दों पर अक्सर उठी आवाज़ों को दबाया यहां जाता हैं,
उन्हीं आवाज़ों के खातिर यहां शास्त्र को शस्त्र बनाया जाता हैं,
शस्त्र बनाकर कलम को अपनी जो लेखक योद्धा बन जाता है,
समाज की नज़रों में वही भुजते दिए की लौ को फिर जलाता है,
जिस कलम का डर संसद की दीवारों में अक्सर गूंजता है,
उसी कलम से अक्सर प्रेम भाव का रस दिलों में लिखा जाता हैं,
शासन की हर नीति का रुख जो हमेशा समाज तय करता है,
उसी समाज सोच की दिशा को काली स्याही संग कोरा कागज़ तय करता है,
इस कोरे कागज पर कोई जिंदगी तो कोई जज्बात लिखता है,
कह न पाए जो भरी महफ़िल में किसी से उसकी आवाज़ यह बनता है,
बच्चे से बुजुर्ग तक की हर कहानी का यह जो दर्द बंया करता है,
सच कहूं तो कागज कलम का यह जोड़ा रोज़ नई दास्तां लिखता है,
चाहकर भी जो बांध नहीं सकता हर मुद्दे पर हमारी सोच को,
यह उसी सोच को शब्द में पिरोकर सच्चाई से सामना हमारा कराता है,