कागज और कलम की बातचीत
कागज़ बोले कलम से क्यूँ इतना सताती हो,
कभी पेंसिल से तो कभी पेन की निब चुभाती हो |
कुछ लिखती हो टेढ़ा मेढ़ा, तो कभी सरपट लिख जाती हो |
मेरे सुन्दर साफ़ ह्रदय को क्यूँ गन्दा कर जाती हो |
इतना सुन कलम इठलाने लगती है,
मुस्कुराते हुए समझाने लगती है |
प्रिय कागज़ आप बन रहे मूरख हैं,
हम दोनों तो एक दूजे के पूरक हैं |
लगते हैं हम पूरे पति पत्नी,तू मेरा कागज़ मैं तेरी लेखनी |
तेरे साथ जुड़ने से ही तो मेरा महत्व है,
कागज़ है तो कलम का अस्तित्व है |
हम दोनों के संगम से कुछ ऐसा लिख जाता है,
जीवन के हर पहलू को अपना लेख दर्शाता है |
कभी बन जाता है मार्ग शिक्षा का, तो कभी काव्य ये कहलाता है |