काकी
गाँव में महामारी फैली थी बाबू ( मेरे पिता ) की माँ उनके तीन छोटे छोटे ( तीन – पाँच और सात साल ) भाईयों को छोड़ भगवान को प्यारी हो गयीं माँ का जाना छोटे भाईयों को समझ नही आया लेकिन मेरे बाबा ( मेरे दादा ) को अंदर ही अंदर तोड़ गया समझ नही आ रहा था क्या करें , ये वो वक्त था जब पिता सबके सामने अपने बच्चों को गोद में नही उठा सकते थे ना प्यार कर सकते थे । बाबा के छोटे भाई का भी कुछ समय पहले देहांत हो चुका था उनकी बाल विधवा को कोई ससुराल लाने को तैयार नही था बाबा को लगा बच्चों के बहाने वो अपने घर भी आ जायेगी ( उस वक्त विधवाओं को अपने पीहर में भी सम्मान नही मिलता था ) और उसको प्रताड़ना से मुक्ति भी मिल जायेगी बाबा की इस प्रस्तावना का विरोध कोई नही कर पाया और मेरे बाबू और उनके तीन छोटे भाईयों के जीवन में जैसे तपती रेत पर बारिश की बूंद झमझमा कर बरस पड़ी ये बारिश की बूंद थी ” काकी ” ( चाची ) ।
काकी को भी जैसे नया जीवन मिल गया जीवन भर बाबा की कृतार्थ रहीं , बाबू उस वक्त बनारस के उदय प्रताप कॉलेज ( उस वक्त क्षत्रिया कॉलेज नाम था ) में पढ़ते थे और वहीं के हॉस्टल में रहते थे छुट्टियों में गांव जाते वहाँ तीनों भाई काकी की ममता की छांव में पल बढ़ रहे थे । गांव में मर्द घर के अंदर खाना खाने और रात को सोने जाते थे बाबा की पत्नी थी नही इसलिए बाबा बाहर दुआर ( घर के बाहर बना विशाल प्रांगण जिसमें मर्द लोग रहते थे ) में सोते घर के अंदर की बातों से अनभिज्ञ रहते , काकी को बच्चों के पालन पोषण पर कोई रोक टोक नही थी लेकिन किसी भी शुभ काम के अवसर पर उनको घर के कमरे में भेज दिया जाता । वक्त आया बाबू के विवाह का अठ्ठारह साल के बाबू के विवाह का सारी रस्में रिति रिवाज से निभाई जा रहीं थीं जब माँ की भूमिका का वक्त आया वहाँ बाबू की बड़की अम्माँ को बुलाया गया तो बाबू ने पूछा काकी कहाँ हैं ? औरतों में कानाफूसी शुरू हो गई ” अरे ! यहाँ विधवा का काम नही है ” ये शब्द बाबू के भड़कने के लिए काफी थे बाबू उठ खड़े हुये और बोले… माँ के जाने के बाद तो हमारे लालन पालन के लिए कोई नही आया आज सब अपना अधिकार जताने के लिए खड़े हैं अगर काकी मेरे विवाह में शुभ काम नही कर सकती तो मुझे विवाह ही नही करना है सब आवाक् जितने मुँह उतनी बात…18 साल के बच्चे की इतनी मज़ाल की सदियों से बनी मान्यताओं की ख़िलाफत करे…बात दुआर तक पहुँची बाबा को पता चली अब बाबू के समर्थन में बाबा भी खड़े थे काकी को अंदर से बुलाया गया उनको कुछ समझ नही आ रहा था हिम्मत नही हो रही थी की इन सारी सधवाओं के आगे वो कैसे ये सारे शुभ काम करे लेकिन बाबू के ज़िद के आगे हार मान ली ( लेकिन अंदर ही अंदर अपने इस सम्मान से खुश हो रहीं होगीं ) माँ की रूप में सारी रस्में काकी ने निभाई । बाबू का विवाह खुशी खुशी सम्पन्न हुआ और इस विवाह के बाद जब तक बाबू की काकी ज़िंदा रहीं हर शुभ कार्य में काकी सबसे आगे रहीं तथा सारे विधि विधान उन्हीं के हाथों पूर्ण हुये ।
( ममता सिंह देवा ,14/06/20 )
स्वरचित एवं मौलिक