क़ुसूरवार
ज़िंदगी का खालीपन कुछ
रह–रह कर सालता है ,
सब कुछ हासिल करने पर भी कुछ
खाली सा लगता है ,
ज़िंदगी की दौड़ में औरों से आगे निकलने की कोशिश मे हम खुद से पीछे रह गए हैं ,
कामयाबी का सिला मिलने पर भी
तसल्ली से मोहताज़ रह गए हैं ,
ज़िंदगी क़ुर्बान की जिन पर वो
अब अजनबी से मिलते हैं ,
ग़म में जिनका साथ दिया, वो
खुशी भी ना साथ बांटते हैं ,
किसका शिकवा करें ?
ग़िला जब हमें ख़ुद से है ,
अपनी हस्ती को भूल चुके थे,
क़ुसूरवार हम अपनी ख़ुदी से हैं ,
नासेह से बनकर अपने आप के सराबों में
भटकते रहे,
ज़र्फ़ और फ़र्ज़ के फ़र्क़ को ता’-उम्र ना
समझ सके ।