गए वे खद्दर धारी आंसू सदा बहाने वाले।
कहां गए वे खद्दर धारी आंसू सदा बहाने वाले।
बदल गई भाषा बाणी सबसे प्रेम लूटाने वाली ?
गहरी खामोशी है छाई मुख से शब्द न फुट रहे।
आखिर होंठ सीले क्यो है संविधान बचाने वाले।।
करण वेदना से लत-फत विप्र सुदामा की कुटिया।
आंखों के झरते आंसू से खुद के स्वप्न सजाने वाले।।
मानवता इंसाफ मांगती है स्वारथ की बस्ती में।
कहां गई हूंकार तुम्हारी जाति जाति चिल्लाने वाले।।
” निकुम्भ “