कवि की कल्पना
हरे हरे शामियाने में
अमलतास के झूमर
श्वेत सलोनी कामिनी
झरे हवा में करती घूमर
नैन मटक्का संध्या संग
करे सिंदूरी गुलमोहर
पात पात झूम रहे
पीत कृष्णचूड़ा मनोहर
ओस लिख रही प्रेम पाती
बाँच रही सुनहरी सहर
पा मलय बयार चुंबन
नदिया रही सिहर सिहर
सात रंग का सेहरा पहने
इठला रहा दूल्हा अम्बर
निकली बूँदों की बारात
गाजे बाजे टिपर टपर
दुल्हन सी सज रही
अवनी ओढ़े हरी चुनर
किन्तु अब देखता कौन
दृश्य रमणीक मनोहर
सुन रही क्या संसृति
सूखे पत्तों की मर्मर
बिरहन की छाती सी
दरक रही धरा धरोहर
म्रियमाण पत्थर मूरत
आँखें सूनी मूक अधर
मृदुल मनोरम सृष्टि थी
या कवि की कल्पना भर
रेखांकन।रेखा ड्रोलिया