कवि का राज़ ••••• (हास्य कविता)*
कवि का राज़ (हास्य कविता)
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जैसे ही लिखने बैठा था मैं, कविता एक अनोखी,
कि तभी आ गए मेहमान बनकर, हमारे एक पड़ोसी,
बोले भैया बड़ी अच्छी अच्छी कविता आप लिखते हो,
हमे भी सिखा दो तरकीब,कहाँ से ऐसा सोच लेते हो,
हम बोले भाई ये ख़ुदा की रहमत,इसमें कौन बड़ी है बात,
आप इंजीनियर हो तो उसी काम में, करो कोई खुराफात,
पकड़ लिए गिर कर अचानक वो, झट से हमारा पैर,
बोले भैया सिखा देओ, तुमका हमसे काहे का बैर,
हम बोले गब्बन भइया, तुम्हे तपस्या बड़ी करनी पड़े,
सोना होगा हर रात तुम्हे,एक टांग पर खड़े खड़े,
फिर जग जाना 4 बजे, और निपटा लेना घर के काज,
झाड़ू, पोछा और सफाई, हां !- बर्तन भी तुम लेना मांज,
फिर बीवी के पैर दबाकर, उसको तुम कर देना खुश,
फिर देखना कैसे मन से तुम्हारे, टेंशन हो जाएगी फुस्स,
फिर जागृत होगी दिव्य दृष्टि,तुम देख सकोगे दुनिया पार,
लिखने में हो जाओगे माहिर, तुम भी फिर काव्य अपार,
सुनकर वो बोला भइया, इससे बेहतर मेरा काम,
तुम अपनी कलम संभालो, हम चले अब राम राम,
उसके जाने पर दोस्तों, ज्यों हम हँसे यूँ चिंघाड़के,
बस फिर बन गयी एक और कविता,
भाई हम तो हैं कवि कमाल के।
©ऋषि सिंह “गूंज”
लखनऊ, उत्तर प्रदेश
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