आज़ादी!
बेटी है तो बेटी की तरह रहें, पढ़ लिख ली तो क्या अपनी मर्ज़ी की करेगी।
बेटीयों को हमेशा पर्दे में रहना चाहिए, वो बेटा थोड़े ही न है, जो बन्दिश में न रहे।।
यूँ तो चंदन हमेशा ही खुद को मॉर्डन दिखने की कोशिश छोड़ता नही था पर अपने समाज की रूढ़िवादी सोच उसके भी जेहन के किसी कोने में छिपी बैठी थी जो अक्सर बेटा बेटी के अंतर को झलका ही दिया करती थी।
अपनी पत्नी किरण और बेटे यश के साथ खुशहाल जीवन जीने वाला चंदन पराशर वैसे तो एक कुलीन खानदान से ताल्लुक रखता था। उसने समाजिक तालमेल एवं व्यवार कुशलता में भी अपने पड़ोसियों तथा अपने मातहतों से अच्छे सम्बन्ध बना रखे थे, पर अक्सर ही अपने बड़े भाई नंदन के द्वारा अपने दोनों बेटियों को दी गयी आज़ादी पर कुढ़ता रहता था।
किरण कई बार उसे समझाती रहती थी कि आज के दौर में ये बातें कोई मायने नही रखती, अब बेटे बेटियों में फर्क ही क्या है?
पर चंदन इसकी सफाई में पिता की परवरिश पर ही कटाक्ष करता।
ऐसा नही था कि चंदन को बेटी पसन्द नही थी, दिन ब दिन उसकी भी इक्षा बलवति होती जा रही थी कि मेरी भी एक बेटी हो ताकि मेरा अपना परिवार पूरा हो जाये। मैं दिखाऊंगा की बेटी को कैसे पालते हैं। बेटियाँ तो पापा की लाडली होती है पर सर पर चढ़ाने का क्या औचित्य। लज़्ज़ा, शालीनता व खानदान की मान मर्यादा भी तो उसे बनाये रखना चाहिए।
नियत ने भी उसकी चाहत स्वीकार कर ली, यश के पांच वर्ष पूरे होते होते एक दिन किरण ने पुनः अपने माँ बनने की सूचना चन्दन को दे ही दी।
समय गुजरता गया निर्धारित समय भी आया, किरण की प्रसव वेदना से बेचैन आनन फानन में चंदन उसे अस्पताल ले कर पहुंच गया। सामान्य प्रसव के उपरांत बेटी के आने की खुशखबरी पा कर चंदन फुला नही समा रहा था पर बिधाता ने अगले ही पल उसकी खुशी काफूर कर दीया।
डॉक्टर द्वारा दिये गए इस आकस्मिक सूचना पर उसके हाँथ पावँ फूल गए कारण नवजात बच्ची के फेफड़े में कुछ दिक्कत है जिसके कारण उसे साँस लेने में तकलीफ हो रही थी, उसे जल्द से जल्द वेंटिलेटर में रखना पड़ेगा।
पर वहाँ भी डॉक्टर ने जबाब दे दिया, बच्ची का बचना मुश्किल है, ज्यादा से ज्यादा घण्टे या दो घण्टे, निर्णय तुम्हारे हाँथ में है कि क्या करना है?
यह सुनते ही चंदन गिड़गिड़ा उठा अब भला फूल सी बच्ची को वो तड़पता हुआ कैसे छोड़ दे। डॉक्टर साहब आप तो भगवान के स्वरूप हैं, जब तक साँस है तब तक आस है। आप खर्चे की परवाह न करें बस इसे बचा लीजिये।
उस रात चंदन को वो गुजरता समय पहाड़ सा लगने लगा। बार बार वेंटिलेटर रूम में झाँक कर देखता, घण्टे दो घण्टे की चहल कदमी करने के पश्चात बच्ची की तड़प से अधीर हो कर चंदन अंदर आया और स्नेह से उसके सर पर हाथ फेरा फिर पैर छू कर लगा जैसे उसे अपने कष्ट से मुक्त हो जाने की प्रार्थना कर रहा हो।
ठीक ढ़ाई घण्टे बाद सूचना मिली की बच्ची अपने तकलीफ से आज़ाद हो गयी।
हर आज़ादी के अपने अपने मायने होते है, चंदन अब भी अक्सर यह सोचता है कि आखिर यह आज़ादी उस बच्ची के खुद की तकलीफ से थी या उस पर लगने वाले बंधनो से या फिर उसके अपने सोच से।।
©® पांडेय चिदानंद “चिद्रूप”
(सर्वाधिकार सुरक्षित ०३/०७/२०२१)