कविता
प्रकृति
इन हवाओं में जहर क्यों बह रहा है
जाने अन्जाने में हम से कह रहा है
ओ मनुजअब भी संभल जा है समय
प्रकृति का हर तत्व वरना ढह रहा है ।
मैने तेरे वास्ते सृष्टि बनाई
तूने मुझसे ही तो पहचान पाई
घोंट न अपना गला अपने ही हाथों
जियो जीने दो देती हूँ दुहाई ।
भौतिकसुखों का इतना न अभिमान कर तू
हस्तियां मिट जाती है ये जानकर तू
समय की गति ये कहे रुक जा जरा
प्रकृति की चेतावनी का ध्यान कर तू ।
नांद हो ओमकार का ये कहे धरती
त्याग तप कीर्तन की हमसे आस करती
झूठ छल में अपनी सांसे न गवायें
जागो मनु वंशज यही आह्वान करती ।
नमिता शर्मा