कविता
प्रेम
प्रेम समर्पण प्रेम तपस्या
प्रेम जगत का सार है
जिस उर में नहीं प्रेम उपजा
वो जगती का भार है
मीरा और राधा ने सब
कुछ इसी प्रेम पर वार दिया
समझ सको तो समझो हरि
ने गीता का यह सार दिया
ईश और हर जीव केबीच
में यही एक आधार है
जिस उर में नहीं प्रेम उपजा
वो जगती का भारहै ।1।
यही तो है माता काआंचल
यही मित्र का साथ है
इसी से बंधते भगिनी भ्राता
भक्ति में झुकता माथ है
तुच्छ न समझो प्रेम की
कीमत यह अनुपम उपहार है
जिस उर में नहीं प्रेम उपजा
वो जगती का भारहै ।21
प्रेमतो केवल उसका धन
जिसका मन निर्मल पावन
कलुषित हृदय कपट छल से
इसका होता नहीं मिलन
पशु पक्षी प्रकृति का हर कण
बदले में देता प्यार है
जिस उर में नहीं प्रेम उपजा
वो जगत का भार है ।3।
नमिता शर्मा