कविता
[13/05, 10:59] Dr.Rambali Mishra: दयाधर्म (दोहा मुक्तक)
दयाधर्म की नींव पर,खड़ा महल संसार।
बन जायेगा स्वर्ग सम,हर मानव सुविचार। ।
इस संगम पर मनुज सब,होते देव समान।
सभी ग्रंथ पावन लिखें,गाएँ बारंबार। ।
दयाधर्म की नाव पर, बैठ करो भव पार।
अगर किये ऐसा नहीं, डूबो सिंधु मझार।।
निर्णय करना है तुझे,अब भी जागो मित्र।
मानवता की औषधी,एक मात्र उपचार। ।
सबका दुख अपना समझ,बन सम्वेदनशील।
यही सुलभ संभावना,मन में रखना शील। ।
निष्ठुर मन पापी अधम,करना इसको साफ़।
मन उर अनुशासित रहे,पुण्य कर्म अनुशील।।
निर्दयता में विष भरा,अमृत दया समान।
धर्मधुरंधर मनुज को,सहज युधिष्ठिर जान। ।
जो द्रोही है जीव का,वही पाप का कुंड।
दयाधर्मरत मनुज ही,मानव की पहचान। ।
साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
[14/05, 17:16] Dr.Rambali Mishra: : दृढ़ निश्चय (दोहा मुक्तक)
पक्का भाव विचार ही,जीवन का पर्याय।
सत्य लक्ष्य पर जो अडिग,वह पाता है न्याय।
दृढ़ता ही फलदार है,तरुवर प्रिय रसदार।
एक राह पर गमन ही, सुन्दर दिव्य उपाय।
मन में ले संकल्प जो, भरा रहे उत्साह।
अथक परिश्रम लगन से, पूरी हो हर चाह।
विचलित होता है नहीं,करे निरंतर कर्म।
सदा खड़ा वह जोश में,बिना किये परवाह।
दृढ़ निश्चय विश्वास पथ,पर चल कर शुभ कर्म।
संबोधन कर आत्म को,यह जीवन का मर्म।
एक राह इक चाल से,नापो उच्च पहाड़।
नहीं कठिन कुछ काम है,यदि दृढ़ हो निज धर्म।
सहज समर्पण भाव हो,रहे मनुज कटिबद्ध।
सुगम लगे गंतव्य अति,मन से हो आबद्ध।
सदा कठिन को सरल कह,फैलो चारोंओर ।
व्यापकता की सोच से,सतत रहो सम्बद्ध।
साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी
[15/05, 17:28] Dr.Rambali Mishra: कुंठा (कुंडलिया)
पाल रखा है ग्रंथि जो,वह असहज इंसान।
कीड़ा बन कर काटती,सदा ग्रंथि शैतान। ।
सदा ग्रंथि शैतान,नाचती बन कर वानर।
है दूषित मटमैल,निकल अंदर से बाहर। ।
कहें मिश्र कविराय,बनो मत निर्जन ठूंठा।
निर्मल हो मन नीर,काट नद काई कुंठा।।
जितनी कुंठा घेरती,उतना मनुज विषैल।
बना कुष्ठ रोगी चले,मक्खी संग कुचैल। ।
मक्खी संग कुचैल,मारता हरदम बदबू।
संबंधों का शत्रु,गमकती कभी न खुशबू।।
कहें मिश्र कविराय,मनुज में विकृति उतनी।
उतना दुर्व्यवहार,कपट कुंठा है जितनी।।
साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
[16/05, 17:52] Dr.Rambali Mishra: मां की अभिलाषा
माता के मन की अभिलाषा,बच्चे कभी दुखी मत होंय।
चिरजीवी वे सदा अमर हों,उनका जीवन सुखमय होय।
किसी चीज़ की नहीं कमीं हो,भरा रहे हरदम भंडार।
उनके मस्तक पर खुशियाँ हों,रहे हमेशा सुख की धार।
बच्चे मां की असली पूँजी,बच्चों से उनका घर द्वार।
लिए गोद में सदा थिरकता ,मां के दिल का सच्चा प्यार।
सोती और जागती प्रति पल, करती रहती सहज दुलार।
नहीँ कभी भी मन में उठता,गंदा मैला दोष विकार। ।
माँ दुख सह कर सुख पहुँचाती,बालक को रखती खुशहाल।
यही तमन्ना उसके मन में,आगे बढ़े हमेशा लाल।
जग में नाम करे वह रोशन,बन जाए वह महि का पाल।
सदा लोक प्रिय रहे भूमि पर, कहलाये वह अमृतलाल।
बालक ही मां की अभिलाषा ,बालक में माता का प्राण।
बालक हेतु जिया करती है,सहती गर्मी वर्षा जाड़।
देखा करती सदा बाल को,आगे पीछे लेकर आड़।
कष्ट नहीँ पहुंचे बच्चे को, एक पैर पर रहती ठाढ़ ।
साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी
[17/05, 16:47] Dr.Rambali Mishra: कुशाग्र बुद्धि (मुक्तक)
कुशाग्र बुद्धिमान ही सहर्ष व्योम छू रहा।
पतंग सा असीम भाव सिन्धु में उछल रहा।
सुतीक्ष्ण दृष्टि एक राग दिव्य मंत्र जाप से।
चला करे अनंत अंतरिक्ष में मचल रहा।
न राग है न दर्प है न दंभ है न द्वेष है।
न पाप का कुजाप है न दुष्ट भाव वेश है।
अपावनी सलिल सदा सुदूर ही खड़ी दिखे।
कुशाग्र बुद्धि के समक्ष कष्ट है न क्लेश है।
कुशाग्रता पुकारती सदैव रम्य उन्नयन।
किया करे सदेह मात्र वीतराग अध्ययन।
जहां न सूर्य की पहुंच वहां दिखा कुशाग्र है।
सदैव चिंतना चले बढ़े कदम सचेत मन।
साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
[18/05, 18:32] Dr.Rambali Mishra: उदारता (मुक्तक)
उदारता दयालुता स्वतन्त्रता पुकारती।
असीम विश्व एकता समत्व योग साधती।
हृदय विशालता बढ़े फले समग्र लोक में।
विशिष्ट चित्त वृत्ति मूल्य साधना सकारती।
अनन्य भाव जागरण सहोदरी मनोरथी ।
प्रकाशमान तेजामान दिव्यमान सारथी।
अनेक एक दीखते समुच्चयी स्वभाव मन।
प्रशांत प्रेम चिंतना सहिष्णु शिष्टता पथी।
निरोग मन सुधारवाद सर्व भौम एकता।
स्वरूप एक ही दिखे मिटे सदा अनेकता।
कुटुंब दृष्टि आगमन सफल रहे बढ़े सदा।
उदारता पले फले दिखे मनुष्य टेकता।
साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
[19/05, 17:19] Dr.Rambali Mishra: सारांश
जीवन का सारांश यही है,आय़ा मनुज अकेला जग में।
वंधन में वह जकड़ा जाता,बेड़ी डाली जाती पग में।
करता है संघर्ष निरंतर,अथक परिश्रम करता रहता।
कर्म एक साधन है उसका,क्रिया पंथ पर चलता बढ़ता।
लिखा भाग्य में उसके जो भी,उसको ही वह पाता रहता।
राज तिलक इक के मस्तक पर,इक बस शीश नवाता चलता।
राज महल में इक रहता है,एक झोपड़ी में रहता है।
इक के आगे पीछे सडकें,एक कोपड़ी में बसता है।
एक धनी है इक निर्धन है,यह ईश्वर की नित माया है।
छोटा ब़ड़ा बनाया प्रभु ने,संचित कर्मों की काया है।
जैसे तैसे सब पलते हैं,सबका जीवन चलता रहता।
कोई हंसता कोई रोता,कोई गाता कोई सुनता।
भांति भांति की जीवन शैली,तरह तरह के लोग यहाँ हैं।
विविध ढंग का हर मानव है,हरित कालिमा भोग यहाँ हैं।
छोड़ सकल माया की नगरी,शव बनकर सब उठ जाते हैं।
जीवन का सारांश खोखला, किये कर्म बस रह जाते हैं।
साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
[20/05, 15:53] Dr.Rambali Mishra: खुशी के पल (मुक्तक)
खुशी के पल वहीं दिखते जहां मनमीत मिलता है।
वहीं आनंद स्वर्गिक सुख सहज संगीत खिलता है।
नहीँ वैराग्य की देवी कभी संताप देती है।
जहां अरमान मृदु कोमल हृदय का भाव दिखता है।
सहज दीदार पावन प्रिय उदर का नित्य होता है।
सदा सत्कार प्रेमिल हो अनादर भाव सोता है।
मिले मंजिल सदा सुखदा मनोरथ पूर्ण हो जाए।
बने यह जिन्दगी सरला लगाती प्रीति गोता है।
साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी
[21/05, 16:54] Dr.Rambali Mishra: पुरुषार्थ (मुक्तक)
धर्म अर्थ काम मोक्ष में सदैव संतुलन।
बना रहे विवेकपूर्ण मस्त मस्त संतुलन।
साथ साथ एक राह को पकड़ चलें सभी।
कदम मिले कदम बढ़े दिखे प्रसन्न संतुलन।
पुरुष महान है वही रहे सदैव संतुलित।
एक राग एक भाव दिव्य रूप संतुलित।
इधर उधर भटक रहा अजीब जीव लोक में।
एक धुन सुधा समान देव लोक संतुलित।
संतुलित समुद्र को नहीं कदापि छेड़िए।
विचार भाव शुद्ध हो इसे सहर्ष टेरिये।
संतुलन स्वभाव है इसे कभी न टोकना।
पुरुष बने चरित्रवान स्वस्थ पुष्ट हेरिये ।
धर्म वीर बन सदा अधर्म को नकार दो।
अर्थ सत्व वृत्ति से मिले उसे सकार लो।
काम सभ्य शुभ्र मान्य देव भाव युक्त हो।
मोक्ष मानसिक दिखे सदा हृदय उतार लो।
साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
[22/05, 15:51] Dr.Rambali Mishra: धर्म का प्रभाव (दोहा मुक्तक)
धारण कर उस कर्म को,करे सदा उपकार।
परहित उत्तम सृजन का,करता रहे प्रसार।
नहीँ किसी से द्वेष का,आये मन में भाव।
पावन चिंतन नित चले,जगती हो परिवार।
कट्टरवादी धर्म को,कभी न मानो धर्म।
हिंसावादी धर्म तो,करता पाप अधर्म।
धर्म सनातन सत्य में,सार्थक वैश्विक प्रेम।
धर्म स्नेह सहयोग का,अद्वितीय प्रिय मर्म।
वही धर्म सबसे ब़ड़ा,जो करता कल्याण।
तुच्छ धर्म अपराध है,जो लेता प्राण।
सात्विक सज्जन सुहृद पथ,ही धर्मों का सार।
नहीँ धर्म दुष्कर्म वह,जिसका दूषित घ्राण।
वह चिर स्थायी धर्म है,जिसका मधुर प्रभाव।
सहनशील मन से बना,जिसका अमिट स्वभाव।
मार काट जो कर रहा,वह है विकट अधर्म।
निर्मल भावों से बनी,सहज धर्म की नाव।
साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
[23/05, 18:00] Dr.Rambali Mishra: प्रीति:एक खोज
अनुदिन प्रीति बढ़े सतत, निखरे स्नेह अपार।
सदा संचरित प्रेम रस,करे सहज शृंगार। ।
प्रीति बिना नीरस सकल ,उर घर द्वार समाज।
टूट चुके मन देह सब,व्यर्थ लगे हर काज। ।
प्रीति कहाँ रहती बता,ढूँढ उसे चहुंओर।
चाहे जितनी दूर हो,मिल जायेगा छोर।।
बहुत अमल मादक महक,उर में रहती व्याप्त।
कस्तूरी की गंध प्रिय,योगी को ही प्राप्त।।
यह अति मोहक मधुर रस,दिव्य पेय मधु खान।
भोग लगे श्रद्धा सहित,खुश होंगे भगवान।।
पीताम्बर को ओढ़ कर,खोज प्रीति का देश।
अंतहीन काया रहित,दिव्य अलौकिक वेश। ।
शीतल निर्मल छांव वह ,चंदन तरुवर वन्य।
नहीं सरलता से मिले,जो पाये वह धन्य।।
भरो अंक में प्रीति को,चूमो उसका माथ।
अग्नि शमन करता सहज,सतत प्रीति का साथ।।
साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
[24/05, 18:12] Dr.Rambali Mishra: विश्व बंधुत्व (मनहरण घनाक्षरी)
विश्व बंधु भाव योग,
दिव्य रंग रूप ओम,
शांत चित्त धीर बुद्धि,
स्वविवेक लाइये।
मनुष्य मात्र बंधु है,
यही बड़ा विवेक है,
जागिए सचेत होय ,
विश्व गीत गाइये ।
रोम रोम अंग अंग,
प्रेम जोश स्नेह रंग,
आत्मसात भावना से,
अंक में सजाइये।
भेद भाव त्याग कर,
भव्य सृष्टि राग भर,
असीम दृष्टि भाव से,
शीश को झुकाइये।
विश्व बंधु बन सदा,
सर्व सुख विचार का,
मोह कर मनुष्य का,
लोक में समाइये।
शीर्ष पर सहिष्णुता,
उदारवाद नीतिका,
विश्व को कुटुंब मान,
प्रेम को उगाइये।
दिल खुला रहे बहे,
सहानुभूति में रहे,
स्वस्थ मन समाज को,
आसमां दिखाइये।
त्याग तप चला करे,
स्वच्छ मन सदा रहे,
शुद्ध भाव मंत्र जाप,
विश्व को लुभाइये।
साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
[25/05, 15:59] Dr.Rambali Mishra: यज्ञ (मुक्तक)
दान ज्ञान मान ध्यान स्नान यज्ञ कीजिए।
प्रेम स्नेह श्रेय शुद्ध पेय यज्ञ कीजिए।
मत किसी मनुष्य से करो कदापि याचना।
बांटते चलो अनंत देय यज्ञ कीजिए।
ब्रह्म ज्ञान कीर्तिमान यश प्रधान होइए।
बीज सत्य लक्ष्य को समाज में भिगोइए।
स्वार्थ को लपेट कर समुद्र मध्य गाड़ दो।
आसमान धाम में कनक लता पिरोइए।
आसुरी प्रवृत्ति त्याग देव यज्ञ कीजिए।
दैत्य दीन भाव छोड़ सेव यज्ञ कीजिए।
मानवीय रूप का स्वयं प्रमाण सिद्ध बन।
जानिये यथार्थ को परार्थ यज्ञ कीजिए।
स्वस्थ सोच की परम्परा सदा अमोघ हो।
आत्मनिष्ठ भावनिष्ठ कर्मनिष्ठ बोध हो।
आत्म मंत्रणा चले सदा करे विवेचना।
यज्ञ भाव भूमि लोक पर सदैव शोध हो।
साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
[26/05, 16:32] Dr.Rambali Mishra: संगीत का प्रभाव (मुक्तक)
सजी संगीत की महफिल,सुहानी खूब लगती है।
प्रदर्शन गीत गायन का,मधुर ध्वनि दिल सरसती है।
भुला कर क्लेश कष्टों को,सभी दर्शक प्रफुल्लित हैं।
परम मोहक सहज सुंदर,रसीली छवि पसरती है।
थिरकते लोग दिखते हैं,मचलते नृत्य करते हैं।
लगाते तान मनभावन,सुरीले स्वर विचरते हैं।
थकाने मिट सकल जातीं,सभी में जोश भर जाता।
लगे यह जिंदगी न्यारी,सभी में प्रेम पलते हैं।
मुखर नर्तन कला मोहन,प्रखर गायन विधा कोमल।
सभी के भाव पावन हैं,सभी में रस भरा निर्मल।
सभी करते प्रशंसा हैं,सभी मुस्कान भर लेते।
उमंगों का न पूछो कुछ,सभी उल्लास से मलमल।
लहर उठती बहुत स्नेहिल,मधुर संवाद सुन सुन कर।
बहारों में फिज़ा होती,उमड़ता स्नेह गुन गुन कर।
पराया शब्द मिट जाता,अलौकिक दृश्य दिखता है।
मिलन होता समुंदर से,सहज संगीतमय बन कर।
साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
[26/05, 18:15] Dr.Rambali Mishra: संगति का असर (दोहे)
अच्छी संगति जो करे,वह गुण से संपन्न।
बुरा साथ करता सहज,दूषित दुखी विपन्न ।।
संगति से गुण होत है,सगति से गुण जात।
गंदी संगति पर करो, आजीवन आघात।।
भला मनुज देता सदा,हितकर दिव्य सलाह।
बुरा दुष्ट दानव कुटिल,दिखलाता दुख राह।।
उत्तम पुरुषोत्तम वहीं,जिसके निर्मल भाव।
सज्जनता भरपूर से,मोहक करे स्वभाव।।
उससे करना मित्रता,जो निष्कपट महान।
सत्संगति सर्वोच्च का,नित करना सम्मान।।
सत्संगति जिसको सुलभ,वहीं भाग्य का तेज।
सदा कुसंगति से मिले,नित काँटों की सेज।।
मानवता से पूर्ण जो,रह उसके ही संग।
मूल्यवान बन कर निखर,रहे हमेशा रंग।।
विनयशीलता की पहल,करता नित्य सुसंग।
समझो सदा कुसंग को,विषधर जीव भुजंग।।
साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
[27/05, 09:34] Dr.Rambali Mishra: प्रेम की तकदीर (मुक्तक)
मापनी 2122 2122 212
प्रेम की तकदीर में उपवास है।
एक गहरा सा समुंदर खास है।
यह बड़ा ही सारगर्भित मर्म है।
यह अतल पाताल है आकाश है।
प्रेम मिलता है कहाँ किसको पता?
प्रेम बिकता है कहाँ पर क्या पता?
प्रेम की तकदीर में आभास है।
प्रेम पाता कौन है किसको पता?
प्रेम राधा कृष्ण का भी मर्म है।
आभवा में प्रेम रज कण गर्म है।
प्रेम लौकिक विश्व में असहाय है।
प्रेम स्वार्थों पर टिका क्या धर्म है?
प्रेम पाने के लिए निष्काम बन।
त्याग की आराधना का हो नमन।
तप किया जिसने वही पाया उसे।
है अलौकिक पारलौकिक यह चमन।
लोक में उपवास करता प्रेम है।
लोक में उपहास सहता प्रेम है।
लोक में है प्रेम की क़ीमत कहाँ?
रक्तरंजित दीन दुखिया प्रेम है।
साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
[28/05, 11:22] Dr.Rambali Mishra: डॉ0 रामबली मिश्र के दोहे
बहुत अधिक की चाह का, कभी न हो परवाह।
जो भी आया हाथ में,कहो उसी को वाह।।
जहां नहीं संतोष है,उसे दरिन्दा जान।
ज्यादा भी थोड़ा लगे,है दरिद्र इंसान।।
मन से मनुज गरीब है,भले बने धनवान।
तुष्ट सुसज्जित हृदय ही,सहज रत्न की खान।।
कभी कृपण के अन्न का,नहीं लगाओ भोग।
विष समान उस भोज से,पैदा होते रोग।।
सादा भोजन संत का,लगता दिव्य प्रसाद।
दुष्टों का पकवान भी,देता दुख अवसाद।।
साधारण सामान्य की, कुटिया में आनंद।
शीश महल से दूर अति,सदा सच्चिदानंद।।
मनसा वाचा कर्म से,जो है अति संतुष्ट।
उस मानव को जानिए,महा संत प्रिय पुष्ट।।
उसको योगी जानिए,जिसे लोक वैराग।
बहुत अधिक की चाह से,मुक्त सहज मन त्याग।।
मानव का कल्याण ही,उसका मौलिक ध्येय।
कार्तिकेय के भाव से,ओतप्रोत मधु गेय।।
साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
[28/05, 16:59] Dr.Rambali Mishra: महबूब (कुंडलिया)
लगी प्रेमिका झूमने,जब आय़ा महबूब।
नृत्य मयूरी कर रही,थिरक थिरक कर खूब।।
थिरक थिरक कर खूब, नाचती मन उपवन में।
विह्वल अपने आप,जगा है प्रेम वदन में।।
कहें मिश्र कविराय,दिखी प्रीति की सेविका।
चली चूमने अंग,व्यग्र सी लगी प्रेमिका।।
खाना पीना त्याग कर,आया है महबूब।
महबूबा से मिलन का,एक इरादा खूब।।
एक इरादा खूब,देख ले वह महबूबा।
झुलस गया है देह,होय शीतल मंसूबा।।
कहें मिश्र कविराय,लक्ष्य है केवल पाना।
महबूबा का स्पर्श,दर्श ही असली खाना।।
महबूबा महबूब का,जब करती सम्मान।
रसने लगता काम रस,होय प्रीति का पान।।
होय प्रीति का पान,प्रेम का वंधन गहरा।
कृष्ण राधिका द्वार,देव सब देते पहरा।।
कहें मिश्र कविराय,प्रेम है बहुत अजूबा।
इसका सच्चा अर्थ,जानती बस महबूबा।।
साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
[29/05, 09:57] Dr.Rambali Mishra: प्रीति नीर
प्रीति नीर में अति मादकता,यह रहस्यमय क्षीर सनातन।
अनुभव का यह विषय वस्तु है,हरा भरा नित बहुत पुरातन।।
इसका जो भी सेवन करता,वह प्रिय निर्मल बन जाता है।
स्नान इसी से जो करता है,स्वास्थ्य लाभ वह पा जाता है।।
जो इसका साथी बन बहता,खूब डूबता उतराता है।
गहराई में खो जाता है,कभी सतह पर आ जाता है।।
जो पीता है इस पानी को,कंचन काया वह पाता है।
खुशियां सारी पांव पसारे,उर भी ढोल सहित गाता है।।
साधारण यह नहीं नीर है,ब्रह्मानंदक इसको जानो।
पीने को रहना नित आतुर,इसको उत्तम जीवन मानो।
सहज कुमुदिनी इसमें खिलती,श्वेत पुष्प का वसन पहन कर।
खिल उठता है तन मन आंगन,सजल रसीला वदन निरख कर।।
प्रीति नीर की उपमा किस से,हो यह काम नहीं साधारण।
चातक बन कर करो प्रतीक्षा,स्वाती का नित कर उच्चारण।।
साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।