कविता आज भी मेरे सपनों में
आज भी मेरे सपनोँ में मेरी भारत माता आती है
बेटे अशोक उठ कहकर मुझको माता जगाती है
कहती कब बड़ा होकर करेगा चौकसी सीमा की
खाद रूपी वीरता के गीत सुनाकर मुझे सुलाती है
अटखेलियाँ करती माता शब्दों के बहुजाल से
अपनी सुगन्ध से मुझे वीरता का बोध कराती है
गूँजेगा भारत का जयकार संसार के कोने कोने
वीरता का संग्रहलय प्यारे भारत को ही बताती है
अहिंसा का पुजारी सदैव भारत देश है कहलाता
हिम को ताज बना कर चरण हिन्द से धुलवाती है
मेरे नन्हे हाथों को पकड़कर अशोक शिवाजी को
खुशनसीबी अपनी किस्मत की माँ मुझे बताती है
चाहकर भी नहीं कर सकता वर्णन माँ के चेहरे का
मैं अबोध बालक ठहरा माँ प्यार से ही समझाती है
तोड़ दो आपनी मानसिक गुलामी की जंजीरे अब
मेरी भारत माँ हम सब से बस इतना ही चाहती है
अशोक सपड़ा की कलम से दिल्ली से
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