कविता
“शोषित धरा”
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इंद्रधनुष से रंग चुराकर सुंदर रचना बाकी है
दूर प्रदूषण जग से करके भू का सजना बाकी है।
बंजर भू के कोमल उर में नील नीर की धारा है
शोषित हो अपनों से हारी मानव ने संहारा है
जननी आज विदीर्ण हुई है मन का हँसना बाकी है
दूर प्रदूषण जग से करके भू का सजना बाकी है।
सूखे तन की त्वचा फटी है रोम-रोम गहरी खाई
तप्त धरा मेघों को तरसी पीड़ित तन से अकुलाई
मूक- वेदना सहती प्रतिपल आस टूटना बाकी है
दूर प्रदूषण जग से करके भू का सजना बाकी है।
हरिताभा को तरसी धरती धूप देह झुलसाती है
फूट गए कृषकों के छाले भूख बहुत तड़पाती है
सौंधी माटी की खुशबू में अंकुर खिलना बाकी है
दूर प्रदूषण जग से करके भू का सजना बाकी है।
मुश्किल से घबराना कैसा प्यासी धरा सिखाती है
जो मन जीता वो जग जीता कर्मठता बतलाती है
दुर्गम राह विवशता छलती धैर्य धारणा बाकी है
दूर प्रदूषण जग से करके भू का सजना बाकी है।
डॉ. रजनी अग्रवाल “वाग्देवी रत्ना”
वाराणसी(उ. प्र.)
संपादिका-साहित्य -धरोहर