कविता
?आशा?
आशाओं के स्वर्ण कलश ने
बूँद एक जब छलकाई।
उर में आशा का दीप जला
पुलक-पुलक कर मुस्काई।।
पुष्प चक्षु से तंद्रा हरके
हरिताभा सी बरसाई।
सूखे पतझड़ के जीवन को
सींच अमृत से हर्षाई।।
सिखलाया उसने मुझको फिर
दृढ़ साहस से इठलाना।
आतप, वात, प्रहार झेल कर
कर्मठता से मुस्काना।।
दुख की छाया पड़ने पर भी
अंत समय न मुर्झाना।
नेह की बाती दीप जला कर
दया, धर्म जन दिखलाना।।
दिखा गई पथ सिखा गई वह
अरमानों की सेज सजाना।
उम्मीदों का दामन पकड़े
सरस धार बन बह जाना।।
डॉ.रजनी अग्रवाल “वाग्देवी रत्ना”
वाराणसी(उ. प्र.)
संपादिका-साहित्य धरोहर