कविता
आत्मनिर्भरता
***
अच्छा है,
बच्चे काम
पर जा रहे हैं
अपना भविष्य
खुद बना रहे हैं ।
कुछ सड़क किनारे
बने ढाबों पर
जुठे बर्तन मांज कर,
कुछ कचरे चुन कर
कुछ मजदूरी कर के
कुछ चाय के दुकानों में
ग्लास धो कर और कुछ
फटेहाल भीख मांग कर ।
उनके चेहरों पर है
गजब का आत्म विश्वास ,
क्योंकि उन्हें है एहसास
अपने पैरों पर खड़े होने का।
बेरहम वर्तमान जीवन से संघर्ष का।
देश के अर्थव्यवस्था को मजबूत करने का।
और सबसे बड़ी बात अपने आप आत्मनिर्भर होने का।
-अजय प्रसाद
आइनों
तुमने तो
ज़रुर सहेज
कर रक्खा होगा
मेरे उम्र के हर
एक पड़ाव को।
रोज़
तुम्हें देख्र कर ही
तो मैंने खुद को
सँवारा है ज़िंदगी में।
-अजय प्रसाद
रिश्तों
में
आने
लगती है
दरार,और
उबाऊ हो
जाता
है
मनुहार ,
जबरन
थोपा
जाता
है
जब
प्यार
-अजय प्रसाद
क्योंकि
मैं पुरुष हूँ
तो
मुझे
हक़ है
स्त्रियों पे
लांछन लगाने का
उन्हें मारने का
उन्हें सताने का
उन्हें हथियाने का
उनके शोषण का
और वो सब करने का
जिससे
उन्हें
नीचा दिखा सकूँ।
कारण
है कि
उनके जैसा
कोई महान
कृत्य
मैं
नहीं कर सकता ।
कोई सुन्दरता
ही नहीं
मुझ में।
मेरे
सारे आविष्कार
मुझे चिढातें हैं।
उनके निस्वार्थ
प्रेम और समर्पण
देखकर ।
तुलना
उनकी की जाती है
धरती,फूल,चांद से
जो मुझे खलतें हैं।
इसलिए तो हम उनसे जलतें हैं
क्योंकि हम उन्हीं के कोंख में पलते हैं।
-अजय प्रसाद
क्या
है
पाप
समझतें
भी हैं आप ?
किसी बच्चे को
जन्म देना और
कहलवाना
खुद को
माँ या बाप !
-अजय प्रसाद