कविता – दुपहरी
आँगन में आ गई दुपहरी
हवा हो गई सुर्ख़ सुई सी
पेड़ के पत्ते भी सूख रहे
चकमक चकमक धूप रूई सी
अलसाये पत्ते डोल रहे
भेद मौसम का खोल रहे
ठंडी हवा कूलर बन बैठी
पक्षी भी ये बोल रहे
हाड़ तोड़ गर्मी है पड़ती
कमरतोड़ काम को लादे
जब आती रोटी की यादे
भूख पेट अँतड़ी मचलती
शरीर भी तप सा गया
मजदूर थक सा गया
भविष्य के सपने सजोये
भरी दुपहरी रूक सा गया
गाँठे मन की खोल लो
मन में खूब सोच लो
लगे पेड़-पौधे खूब अब
तबाही धरा की रोक लो
-आकिब जावेद