कविता दिवस पर ….कवि ऐसे ही होते हैं
उड़ जाती है नींद आँख से दिन का चैन भी खोते हैं
समझ सके न जिनको दुनिया कवि ऐसे ही होते हैं
रूहों की बस्ती में जाकर उनकी गाथा गाते हैं
बागों में फूलों की खुशबू से जी भर बतियाते हैं
काँटों से भी नेह लगाकर घायल होते रहते हैं
भंवरे,तितली,जुगनू के भी कायल होते रहते हैं
हृदय धरातल पर भावों की फस्लें हरदम बोते हैं
समझ सके न जिनको दुनिया कवि ऐसे ही होते हैं
हर इक मन की बात हमेशा बिन बोले पढ़ जाते हैं
बेलगाम कल्पना के घोड़ों पर अक्सर चढ़ जाते हैं
कटु यथार्थ के रेशे बुन शब्दों का जाल बिछाते हैं
हो गरीब या क्रूर सियासत सबको राह दिखाते हैं
सबकी पीड़ा,ख़ुशी,उदासी,आँसू खुद ही ढोते हैं
समझ सके न जिनको दुनिया कवि ऐसे ही होते हैं
फँसकर रहते हैं अतीत के कुछ नाजुक से फंदों में
सारा जीवन बिता दिया दोहे, चौपाई,छंदों में
बंधन सारे तोड़ जगत को नीति नई दे जाते हैं
कलम पूजने वाले अक्सर रीति नई दे जाते हैं
मिलता है उतना ही उनको जितना भी वो खोते हैं
समझ सके न जिनको दुनिया कवि ऐसे ही होते हैं
सुर,लय,ताल सजाते रहते जीवन के वीरानों में
रह जाते हैं तनहा अक्सर अपनों में बेगानों में
न तो तन पर वस्त्र हैं सुन्दर,न पैरों में जूते हैं
हम शब्दों के रथ पर चढ़कर चाँद सितारे छूते हैं
भाव में डूबे तन्हाई में बेमतलब ही रोते हैं
समझ सके न जिनको दुनिया कवि ऐसे ही होते हैं