#कविता : जीवन के दिन चार
#जीवन के दिन चार
बनो सहारा मत चाहे तुम, कपट किसी से मत करना।
एक चुनौती सही चलन की, स्वीकार करो फिर चलना।।
कौन किसी को क्या देता है, कौन किसी से क्या लेता;
दूर रहो इन सब बातों से, कर्म सही अपना करना।।
धोखा पाकर धोखा देना, उचित नहीं यह होता है।
शूल रुलाएँ फूल हँसाएँ, हर कोई फल बोता है।।
प्रेम लुटाकर प्रेम बढ़ाना, आनंद घना पाओगे;
भाग्य कर्म का मेल अनोखा, दोनों का समझौता है।।
संभल-संभल चलनेवाला, हँसता और हँसाता है।
लापरवाही करके मानव, उलझन में घिर जाता है।।
मरहम से ही ज़ख्म भरेगा, वरना यह पक जाएगा;
इन दोनों का भी प्रेम-भरा, भाग्य कर्म-सा नाता है।।
सुनो रूह आवाज़ तुम, चलो उसी अनुसार।
जीवन हँस दे आपका, स्वर्ग लगे संसार।।
प्रीतम निज को समझिए, जीवन के दिन चार।
चार नहीं दिन कम अगर, समझो इनका सार।।
#आर. एस. ‘प्रीतम’
#स्वरचित रचना