कल शाम
कल शाम
जब प्रकृति मुस्कुराई थी,
जब बादल फट पड़े थे
अपने अंतर को उड़ेलते से,
और यह हवा कुछ पगलाई थी,
याद है?
उन पत्तों पर तैरती
बूँदों की रुनझुन,
खिड़की के शीशे पर बहती
वो पानी की एक लकीर,
और हवा में तैरता
भीगा सा मल्हार
जब फुहारें आँगन में बिखर आयीं थी।
बरसाती मिट्टी की यह सोंधी महक,
रोशनी से खेल करता, यह नाचता-कूदता कोहरा
व्योम के सीने पर चमकते, कौंधते
बिजली के खड्ग
छातों, बरसातियों के नीचे दबी ज़िंदगी
सब कुछ रेंगता, खिसकता सा,
ख़ुशनुमा फिर भी,
कल शाम
जब प्रकृति मुस्कुराई थी..