कलेजा फटता भी है
जब कभी किसी अपनों के ही
तीक्ष्ण बाणों की तरह चुभती
विष भरी बोली से अपना दिल
अगर छलनी छलनी हो जाय तो
मन तो हो जाता है क्षत विक्षत
अपना सम्पूर्ण अस्तित्व ही तब
लहुलुहान होकर होता है आहत
अंदर ही अंदर रोता घुट घुट कर
किसी से कुछ कह नहीं सकता
बस दिल है जो बैठता जाता है
तब हमें भी पता चलता है कि
बिना शोरगुल या आवाज के भी
कलेजा अपना फटता भी है
किसी और पर फिर क्या हो
अपनों के उपर से भी विश्वास
बिजली के तार पर बैठे किसी
पंछी की तरफ फुर्र हो जाता है
ऐसा भी एकदम नहीं है कि
सुई धागे से ही उसे फिर सी दूॅं
इस उम्मीद से कि हो न हो कभी
फिर पहले की तरह धुक धुकी
उसमें अगर कहीं जग ही जाए