कली
कली
✍✍
बगियाँ में जब एक
कली खिली
आ भँवरे ने एक
बार घूरा
कली सहम सी उठी
भँवर बाबला
हो निकला
परत दर परत खुलते
कली के
रंग यौवन का
चढ़ने लगा
बात कहे कैसे भँवरा
दिल की
कली का पीछा
करने लगा
हो जाता जब सबेरा
चैन तब उसको
आ जाता
इन्तजार बना रहता
भँवरे को
कली जब खुलने
को आतुर होती
रोज की दिनचर्या थी भँवरे की
रोज आना
बैठ कली पर मधुपान
करना
रोक नही पाता
भँवरा
न कली बिन देखे
रह पाती
एक दूजे को था
इन्तजार
यहीं इन्तजार था
भावी जीवन
का आगाज और भविष्य
आदी थे इतने
एक दूसरे के
कि
बिन देखे न रह
पाते
डॉ मधु त्रिवेदी