*कलम उनकी भी गाथा लिख*
कलम उनकी भी गाथा लिख
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लिखा बहुत अब तक तुमने फुटपाथ पर गुज़रा जिनका बचपन।
फैलाये है हाथ जिन्होंने पेट की भूख मिटाने को,
चंद सिक्कों की खतीर, खटते दिख जाते है सेठों के दरबारों में।
लिखा है तुमने उनको भी,जीवन का बोझ लिये कांधे पर,
चिलचिलाती दोपहरी में, दो रोटी पाने को,अपने सीकर की बूँदों से पत्थर भी पिघला देते हैं।
और लिखा है तुमने, घुटनों से तन ढंकने की कोशिश करती नारी का जीवन जुठन धोती दिख जाती जो किसी और के आँगन में ।
लिखा है तुमने महलों में पलने वालों की अनंत कहानी।
ऊँची ड्योढ़ी पर बैठा कौवा भी कोयल दिखता है,
अमीरी की चादर में लिपटा चोर मसीहा-सा दिखता है,
और लिखा तुमने यह भी कि
आभूषण में जकड़ी,महलों में रहने वाली,
नारी का स्वरूप महज़ एक पुतला है।
कलम उनकी भी गाथा लिख,अगर कभी फुरसत हो तो!
लिखना, उस नारी का जीवन !
फटी आंचल मे अरमानो की गाँठ सजाय
उड़ जाती है नीलगगन में वेग पवन का साथी बन।
लिखना उस आहत नर को भी,
कुछ कर्ज चुकाने और उपजाने में हीं बीत जाता है जिसका सारा जीवन।
लिख देना उस बचपन को भी,
माँ के आँचल का ऋण लिये तन पर,
रात गुजारे अम्बर की चादर ओढ़े।
बाबा के मेहनत की रोटी आधी भी खायी होगी,बिन रोटी के भी न जाने कितनी रातें सोई होगी ,
पुस्तक के वर्णों में उलझा माध्यम वर्ग का बचपन,
जिसका न उदय न अंत, गुजर जाता है वर्तमान का सिलने मे पैबंद।
* मुक्ता रश्मि *
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