*कर्ण*
मैं तो अबोध शिशु था,मुझको क्या था पता जगत का ।
छोड़ दिया था जल में ,किस ओर चला किस पथ पर ।
कैसी थी वो मां कैसे मुझको छोड़ा था जल में ।
अपने बालक को छोड़ा,चुन लिया स्वयं के कल को।
खुद बनी रही परिणीता,मुझको धिक्कार मिला था।
राधेय ने अपनी ममता से मुझको तृप्त किया था ।
मेरी माता राधेय रहे जब तक जीयूं मैं जग में ।
उसके ऋण को चुका नहीं सकता मैं इस जीवन में ।
बड़ा हुआ जब अस्त्र, शस्त्र की विद्या सीख गया था ।
इस जग के नियम ने फिर भी बक्शा नहीं मुझे था ।
जब मैं टूट रहा था,कुछ समझ नहीं आया था ।
मैत्री की सीतल छाया दुर्योधन से पाया था ।
कहते है छोड़ दो उसको,कैसा जीवन वो होता है।
धिक्कार है ऐसे जीवन को जो अवसरवादी होता है।
जब कोई नहीं था साथ,तो उसने हाथ बढ़ाया अपना ।
राजभवन भी मिल रहा हो तो भी उसको समझूं सपना।
जगत हंसेगा मुझपे, ताने और अपमान मिलेगा।
जब जाऊंगा इस जग से इतिहास मुझे कोसेगा ।
स्वार्थी नाम आयेगा जब सब मुझको याद करेंगे ।
कर्ण बड़ा स्वार्थी निकला ,मुझको नीच कहेंगे ।
जब तक था स्वार्थ ,रहा दुर्योधन के साथ ।
आज विपत्ति आई तो वह छोड़ चला वह हाथ ।।
✍️ प्रियंक उपाध्याय