परिणय प्रनय
कभी क्षणिक अति अवसाद में
सोचता था ये जीवन व्यर्थ मिला !
पर जब तुम आयी जीवन में
‘जीवन’ को एक नया अर्थ मिला !!
इस थमे हुए जीवन पथ पर
कारवाँ खुशीयों का उमड़ चला !
यूं ही चलते-रूकते संग-संग
सुखों का चल पडा़ सिलसिला !!
सह जीवन की इस यात्रा में
आये वसंत,सावन और पतझड़ !
पर खुशीयॉ रही सदा सदाबहार
चाहे हालात गए कितने बिगड़ !!
होते सात फेरे और सातवचन
जैसे सात आश्चर्यों का संसार !
निभाना इन सात वचनों को
होता जैसा आठवां चमत्कार !!
परिणय की वह पावन बेला
आ प्रतिवर्ष दाम्पत्य-जीवन में !
सजोती सजाती संवारती और
भरती नया रंग पावन-बंधन में !!
शक्ति-सुख,सत्ता-सुख,स्वर्ग-सुख
सब में है दाम्पत्य-सुख अनोखा !
जिसने सच्चा दाम्पत्य-धर्म निभाया
उसने ही तो सर्व-सुख है देखा !!
~०~
मौलिक एवं स्वरचित: कविता प्रतियोगिता
रचना संख्या -११: म ई,२०२५.©जीवनसवारो.