कभी-कभी ..
कभी-कभी ..
अपने आसपास
सब एक चित्र सा रह जाता है
मैं तटस्थ होती हूं
किसी को नहीं पहचानती हूं
वास्तविक स्थिति के
घेरे में रहते हुए भी…
विलग हो जाती हूं..
पता नहीं कहां ….
और संसार !
एक चित्र के समान
चलायमान लगता है
भूल जाती हूं …
अपनों के नाम …
अपना नाम…
पर आंखें देख रही होती हैं
इसका भान रहता है…
मैं मुक्त नहीं ..
यहीं कहीं संसार में..
विचरण कर रही हूं
अपनी ही छाया के पीछे….
~ माधुरी महाकाश