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14 Sep 2017 · 1 min read

कफस में फड़फड़ाईं बेटियां

वज्न-2212 2212 2212 2212 2212
अरकान-मुसतफ़इलुन्*4
बह्र-रजज़ मुसम्मन सालिम

महका हुआ है मेरा आंगन जब से आईं बेटियां।
जैसे चुरा के फूलों की खुशबू को लाईं बेटियां ।।

घर का मेरे ये कोना-कोना हो रहा गुलज़ार क्यूं।
आया समझ में अब कि घर में खिलखिलाईं बेटियां।।

इमदाद जब कुछ न मिली उम्मीद मेरी खो गयी।
फिर फोड़ अपनी गुल्लकें पैसे ले आईं बेटियां।।

अब ये नया सा दौर है कीमत लिबासों की बहुत।
मुझ पे नही जॅचता है ये देतीं सफाईं बेटियां ।।

मेरा तआर्रूप कुछ नही इक अदना सा इंसान हूं।
मेरी कराती है ज़हां में अब बड़ाईं बेटिया ।।

लो बचपना बीता लगीअब बंदिशों की बेड़ियां।
जैसे परिंदा हो क़फ़स में फड़फड़ाईं बेटियां।।

माॅ-बाप करते उम्र भर जब राज उनके ही दिलों में।
फिर जाने किसने कह दिया होती पराईं बेटियां।।

अल्फ़ाज़ है बे रंग मेरे ये क़लम बेदम “अनीश”।
जब रूखसती के वक़्त बाहों में समाईं बेटियां।।

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