औरत – दोयम – दर्जा
समानता के दर्पण में अपना हाथ खाली हैं ।
विकास की घोषणा व्यर्थ लागे I
मेरे जख्म बोलते ,
पर मैं ना बोल पाई ,
मन के तराजू पर
तौलते पाई – पाई l
राम का विचित्र समाज हैं ।
आज भी सीता को वनवास है।
वजूद के पल में उलझा हुआ आज हैं।
किसे बोलूँ , कहाँ हृदय अपना खोलूँ ।
इसलिए आज आपसे कहती हूँ ,
राम?
छोड़ दिया आपने मोड़ दिया आपने
कर दी घायल नारी नाम , हे राम ?
एक आवलम्बन है , विवशता l
जिसे आज भी जीती है , सीता ?
जिनके आदर्श हैं, भगवान राम , वो क्यों रोये जीवन उम्र – तमाम I
जेहन में उठता प्रश्न कौंधता, इस उम्र को लेकर कहाँ जाऊ भगवान।
गृह से लेकर बालिका गृह तक,
रखे जाते गुप्त भेद।
सोच-समझ भी नही पाती।
विगत हाल पर, दिल तड़पे नैयनन बरसे ,
हे राम?
कहाँ जाएँ ये दोयम – दर्जा I
हे राम?
मेरे मौत पर भी असम्मान , यहाँ साँस रहते तोड़ दिए जा रहे।
जीवन , वंचित कर दी जाती जिदंगी से ,
कैसा मुकाम मिला मुझे जिंदगी में ,
हे राम???????????।_ डॉ. सीमा कुमारी, बिहार ( भागलपुर ) । नोट :- मेरे द्वारा सभी रचना जिसमें मैं अपना साइन करती हूँ वो स्वरचित कविता है मेरी इसलिए हरेक में स्वरचित लिखना मैं जरूरी नहीं समझती।
आज ना राम . ना रावण . ना वाल्मीकि आश्रम