ऐ मन,अब तो ठहर…!
ऐ मन, अब तो ठहर…!
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ऐ मन, अब तो ठहर…!
क्यूँ बरपा रहे हो ,
इस तन पर कहर ।
हैरान हैं तन अब तो ,
तेरी संगति का असर देखकर।
रूह काँप जाता है कभी कभी,
तेरे सान्निध्य में रहकर ।
क्यों बेचैन होते हो तुम ,
डगमगाती कश्ती पर ,
कदम रखने को आठो पहर ।
एक पल को, जरा ठहर !
तेरी साजिश का ,
पर्दाफाश तो मैं कर दूँ ,
हिसाब तो कर लूँ ,
तेरे उन सारे करतूतों का,
क्या खोया क्या पाया,अब तक मैनें।
तेरी कुटिल मुस्कानों के जाल में पड़कर।
ऐ मन, अब तो ठहर !
रुक जा, थोड़ी देर के लिए,
करके न चला जा, वीरान ये शहर।
बहुत हो गया दौड़ना, गिरना और उठना,
अब सोचने दे थोड़ा, तन्हा बैठकर।
ऐ मन, अब थोड़ा सा ठहर…!
मौलिक एवं स्वरचित
सर्वाधिकार सुरक्षित
© ® मनोज कुमार कर्ण
कटिहार ( बिहार )
तिथि – ०६ /०२/ २०२२
माघ, शुक्ल पक्ष , षष्ठी,रविवार
विक्रम संवत २०७८
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