“ऐसा मंजर होगा”
“ऐसा मंजर होगा”
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एक दिन, ऐसा मंजर होगा;
जगह -जगह पर घर होगा,
आगे, अनजाना डगर होगा,
हवा ही , सस्ता जहर होगा;
ऐसे बसा हुआ, शहर होगा।
एक दिन, ऐसा मंजर होगा;
फूल नहीं, सिर्फ अंगारे होंगें;
कांटे ही तो, बहुत सारे होंगे;
संवाद नहीं, सिर्फ नारे होंगे;
खुशियां, न किसी द्वारे होंगे।
एक दिन, ऐसा मंजर होगा;
मानव सब, देशी बंदर होगा;
ना कोई फिर इंसान दिखेगा;
हर जगह , बेईमान दिखेगा;
नहीं कहीं पे, ईमान दिखेगा।
एक दिन , ऐसा मंजर होगा;
हर रिश्ता ही, खंडहर होगा;
क्या भाई , क्या बहन होगी;
माता -पिता ना, सहन होगी;
जगह-जगह पे , वहम होगी।
एक दिन , ऐसा मंजर होगा;
नहीं कहीं कोई, स्थिर होगा;
ना राम, न ही युधिष्ठिर होगा;
सबका ही, कपटी मन होगा,
हर जगह पे , दुर्योधन होगा।
एक दिन, ऐसा मंजर होगा;
धर्म नहीं कोई , सुंदर होगा;
स्वार्थ ही, सबके अंदर होगा;
नशे में ही, हर कोई चूर होंगे;
सब घर पर ही, मशहूर होंगे।
एक दिन , ऐसा मंजर होगा;
भाई ही , भाई को मारे होंगे;
अपने सब धन , पराए होंगे;
पराए सब जन , अपने होंगे;
नहीं कहीं , कुछ सपने होंगे।
एक दिन , ऐसा मंजर होगा;
हर हाथ में, एक खंजर होगा;
एक ऐसी बनी, कहानी होगी;
प्यासे होंगें , नहीं पानी होगी;
आंगन में फैला,समंदर होगा।
एक दिन , ऐसा मंजर होगा;
जगह जगह,धरा बंजर होगा;
सर पे ना कोई , अंबर होगा;
नहीं किसी में , जज्बा होगा;
शैतानों का ही, कब्जा होगा।
एक दिन , ऐसा मंजर होगा,,,
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……✍️पंकज ‘कर्ण’
……….. कटिहार।।