एक स्त्री
एक स्त्री
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बंदिशों में सिमटी नारी,
आजाद कहां थी ये नारी।
हर जगह बंदिश क्यों,
आजादी से जीना चाहती है नारी।
कभी मां बनकर,कभी पत्नी ,तो कभी
बहन,बेटी बनकर।
बंदिशे तो हर रिश्ते में झेलती हे नारी।
उसने सबको बर्दाश्त किया ,
बनकर सहनशीलता की मूर्ति
उसने खामोशी से सब झेला है,
दरवाज़े की ओट से झांकती नारी।
दिल की पीड़ा को अमृत सा ,
पी जाती हे नारी।
कभी अपनों को व्यथा नहीं
सुनाती नारी!
उसको न समझों अबला,
वो हे सबला शक्ति शाली नारी,
उसमें नौ देवी के रूप हैं,
कभी काली,कभी दुर्गा,
तो कभी चण्डी भी बन जाती हे नारी।
कभी ममता की मूर्ति हे बनजाती,
हर रूप उसमें है समाहित!
देवी का रूप होती है नारी।
ईश्वर ने मां को पृथ्वी पर भगवान
रूप में है भेजा,
बच्चों की रक्षा करो
मानव का कल्याण करो!
धरा पर ममता की मूर्ति—
बन जाती हे नारी
बन जाती हे नारी!!!!!
सुषमा सिंह *उर्मि,,