एक सूखा सा वृक्ष…
खदान में आते – जाते,
रोज देख रहा हूँ –
उस शाल के सुखे वृक्ष को
जो कबसे – कितने युगों से;
अगर मैं याद कर पाता,
तो बताता –
कि वह “सूखा वृक्ष”
जो न जाने कब से –
खड़ा है, सारंडा की गोद में
मेघाहातुबुरु की छाती पर;
घने हरियाली के बीच,
स्वंय में सूखापन लिए –
सुनापन लिए,
नितांत अकेला !!
मानो;
उसके अकाश का तारा,
टुट कर
खो गया है – कहीं दूर…
क्षितिज में;
जो उन पहाड़ियों के पीछे है-
जिसे कहते हैं “माइनिंग बेंच”,
क्रशिंग प्लांट और डंप यार्ड !
और मैं देख रहा हूँ
कि अब –
सूखे वृक्ष ने बंद कर ली है;
अपनी आँखे !!
शायद अब वह -;
देखेगा – कल्पना की दृष्टि से
अपना अतीत और –
मेघाहातुबुरु का भविष्य,
जहाँ गर्भ से लेकर उपर तक
बिखरे हुए है फौलादी पत्थर,
सिमट कर दूर चले जाते हैं-
किसी “धमन भट्ठी “ के;
सोने की –
धधकती आग को,
शांत करने के लिए – !!
उसी तरह – उस – जैसे
न जाने कितने ही,
तरुण तथा प्रौढ़ वृक्ष ;
झोंक दिए गये –
प्रगतिशीलता, वैश्विकरण और
आधुनिकता की उस भट्ठी में
जहाँ से ये पत्थर
निकलेगें फौलाद बनकर
निर्माण करने के लिये,
देश के भविष्य का –
आने वाली युगों में – ;
देश को -,
लौह शिरोमणि बनाने के लिये !
मातृभूमि के रक्षा के लिये ;
समृद्धि का विस्तार करने के लिए ;
जहाँ वह आज भी खड़ा है !
सूखा ही सही, टुटा ही सही !!
सूखे वृक्ष के होठों पर,
स्वप्निल सी मुस्कुराहट उभरती है –
मानो कहा रहा हो –
जिस मिट्टी से जन्मा,
जिस मिट्टी ने पाला,
और –
जिस मिट्टी के हृदय से लगकर –
वह आज भी खड़ा है,
उसका – उसके स्नेह का – !
कर्ज तो चुकाना ही है न ?
काश !!!
मनुष्य भी ऐसा सोच पाता !
सूखे वृक्ष ने अपनी आँखें
खोल दी है –
मैं उससे आँखें चुरा रहा हूँ !
आखिर मनुष्य ही तो हूँ !!
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