एक सूखा सहरा है अब वहाँ
एक सूखा सहरा है अब वहाँ
एक घना दश्त था कभी जहाँ।
क्यों हो गया बंजर ये शहर
और खो गई हर छत-ए-मकाँ।
अब छोड़कर ये मुर्दार ज़मीं
हम जाए गर तो जाए कहाँ।
कभी बज़्म थी जो यारों की
इमरोज़ बनी रिश्तों की दुकाँ।
हर कोई ज़ुबाँ का पक्का था
अब भूल गए अपनी लिसाँ।
सब जश्न कैसे मातम बने
सब ढूँढ रहे हैं इसके निशाँ।
जॉनी अहमद ‘क़ैस’