एक सहेली दूर कहीं….
एक सहेली दूर कहीं…
एक सहेली दूर कहीं
बैठी अकेली रो रही
बहते अश्कों के धारों से
मुँह वह अपना धो रही
उसका साथी कोई नहीं
जाने वह कबसे सोई नहीं
समझे न कोई उसकी पीर
किसे दिखाए वो दिल चीर
नाजुक काँधों पर दिल के
वह बोझ गमों का ढो रही
सबको बाँटती स्नेह-नीर
पर खुद सदा प्यासी रही
अरमानों की नदिया भीतर
मचलती बारहमासी रही
घिस लक्कड़ हुए हाथों से अपने
वह बीज ममत्व के बो रही
चली कतरनी सी जग-जिह्वा
मुक्त उड़ान पे उस सखी की
इतने कोलाहल बीच सबके
सुनता ही कौन उस दुखी की
याद कर बीते पल सुहाने
बिखरे मनके मन के पो रही
भाव उमगते मन-उदधि के
शनै:शनै: स्पंदन शून्य हुए
बनी बैठी पाषाणी प्रतिमा
विगलित सारे ही पुन्य हुए
तारन हारे राम की अपने
बाट युगों-युगों से जोह रही
गम ओढ़े नैन उघाड़े सो रही
एक सहेली दूर कहीं…..
– © सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद
“मृगतृषा” से