एक बहन की आस
एक बहन आज भी दरवाज़े पर अपने भाई का इंतज़ार करती हैं,
कहीं किसी हाथ उसके भाई का पैग़ाम आए,
इसलिए एक टक खिड़की की ओर निगाहें रखती है,
सन् निन्यावे में वादा किया था भाई ने कि इंतज़ार करना मेरा,
तेरे हाथ से अपनी कलाई पर राखी सजवाने जरूर आऊंगा,
पूरा करने बहन से किए वादे को वो वापिस तो जरूर आया,
पर अफसोस उनके साथ जीने नहीं बल्कि तिरंगे में लिपटकर आया,
टूट गया हर ख्वाब उस घर का जो उसके परिवार ने देखा था,
छूट गया वो हाथ जो अपनी बहन की रक्षा के लिए उठता है,
आज इक्कीस साल बाद भी उस बहन वो मंज़र याद है,
क्यूंकि राखी से सजी हर थाली ने उसके मन में जगा रखी आस है,
जीत गए हम कारगिल भले ही पर कितने ही परिवार हार गए,
शहीद हुए जो हमारे लिए उनके अपने आज भी उनकी राह ताक रहे,
आंखे नम है उस बहन की पर देश हित की लौ अब भी मन में जल रही,
तभी तो हर राखी पर उसकी बनाई कई चिठ्ठियां सरहद पर पहुंच रही,
नीला आसमां आज का खुदा की नम आंखों की यूं गवाही दे रहा,
क्यूंकि कारगिल के योद्धा का हर परिवार आज भी अपनों का इंतज़ार कर रहा,
कुछ पल का रिश्ता टूटने पर जो तनहाई का जीवन बिताते हैं,
एक बार देखो उन परिवारों को जिनके अपने हमारे लिए उनको छोड़ जाते हैं।