एक बंदर
एक रोज जंगल का बंदर,
आ पहुँचा कमरे के अंदर।
इधर -उधर वो उछला- कूदा ,
गिरता -पडता उलटा सीधा।
खोल देख ली थी अलमारी,
और पहन ली रेशम सारी,
पंखा देखा तो चकराया,
इसका भेद समझ ना पाया।
कमरे मे सामान हिलाया,
तेल इत्र को भी फैलाया।
दर्पण देखा तो वह उचका,
दिखा दिया उसको मुंह बिचका।
तभी आई उसको कुछ आहट,
भागा डरकर फिर वो सरपट ।