एक पुष्प
स्वर्ग के देवियों व देवताओं का, अमिट अभिनंदन बन जाता हूॅं।
किन्तु पृथ्वी लोक में आते ही, मात्र एक मनोरंजन बन जाता हूॅं।
मैं तो केवल एक पुष्प मात्र हूॅं, कभी यह बात भी भूल जाता हूॅं।
तभी दुविधा व सुविधा के मध्य, मैं कई बार यूॅं ही झूल जाता हूॅं।
कभी हृदय की निश्छलता से, मैं वास्तविक दर्पण बन जाता हूॅं।
कभी भावनाओं से जुड़ते हुए, एक विनीत अर्पण बन जाता हूॅं।
कभी बच्चों के संग में रहकर, उन्हें नई बात सिखाया करता हूॅं।
समय न रहे कभी एक जैसा, ये सत्य सबको बताया करता हूॅं।
कभी प्रेमी के हाथों में रहकर, प्रेम के प्रसंग को आगे बढ़ाता हूॅं।
कभी प्रेमिका की हामी बनकर, हर प्रेम को अमर कर जाता हूॅं।
कभी दोषी के हाथों से होकर, क्षमा की याचना करने आता हूॅं।
कभी ईश्वर की पूजा थाली में, मन से आराधना करने आता हूॅं।
कभी धागे की लड़ियों में बॅंधकर, एक लम्बी माला बन जाता हूॅं।
कभी टहनियों में लटकते हुए, समूची कायनात को महकाता हूॅं।
कभी थालियों में सजते हुए, अतिथियों का सम्मान कर पाता हूॅं।
कभी फूलों की कई किस्में बनकर, मैं पूरे गुच्छे में सज जाता हूॅं।
मैं तो मन से दुखी हो जाता हूॅं, जब-जब डाली से तोड़ा जाता हूॅं।
गहरी पीड़ा को महसूस करता हूॅं, जैसे ही पैरों से रौंदा जाता हूॅं।
जब मालाऍं उछाली जाती हैं, तब तो मैं गुस्से से हिल जाता हूॅं।
जो डालियाँ काटी जाती हैं, तो मैं गहरे विषाद से मिल जाता हूॅं।
मैं इस प्रकृति का उपकार हूॅं, हर समारोह की शोभा बढ़ाता हूॅं।
जन्म, सगाई, विवाह और त्यौहारों में, बहुतायत बाँचा जाता हूॅं।
यहाँ अवसर चाहे हो कोई भी, मैं पूरा साथ सभी से निभाता हूॅं।
मैं तो शोकाकुल घड़ियों में भी, शव के इर्द-गिर्द बिछ जाता हूॅं।
बुरा हो या अच्छा, समय बीतता है, दोनों को साथ ले आता हूॅं।
आज भी तो कल से सीखता है, यह सन्देश सबको सुनाता हूॅं।
कोई हारता कोई जीतता है, पुनः प्रयास की प्रेरणा दे जाता हूॅं।
बेजान वनस्पति होते हुए भी, सर्वस्व प्राणवायु नित बहाता हूॅं।