*** एक दौर….!!! ***
” एक दौर गया…
एक दौर फिर आया…!
तब क्या खोया…
और अब क्या पाया…?
कुछ हिसाब-किताब नहीं…
बस मस्ती से हर दौर में मुस्कूराया…!
राहें बनती रहीं…
और मैं चलता रहा…!
कदम-कदम पर मुझे…
अनेक चौराहे मिलते रहे,
अपनी विचार और बाहें फैलाए…!
मैंने कुछ बातें कर…
बाहें लगा उनसे गले मिलाए…!
एक कदम रखा…
और अनेक राहें फूटतीं रहीं…!
मैं उन राहों से…
यूं ही गुजरता रहा…!
जिंदगी की लहरें बहती रहीं…
और मैं अथक तैरता रहा…!
कुछ सुर्ख हवाएं…
तपाती रही तन…!
कुछ सुहाने सपने,
उलझाती रही मन…!
कभी खुद को पाया मझधार में…
तो कभी खुद, मझधार से पार लगाया…!
कभी मंजिल को देख दूर…
तो कभी मंजिल को पाया आस-पास ,
कुछ सोचा…
कुछ अनुमान लगाया…!
पर…
जिंदगी के शाखाओं को,
जिंदगी के पहलूओं को,
कुछ समझ नहीं पाया…!
एक दौर गया…
और यूं एक दौर फिर आया….!! “”
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