गौरैया

कुण्डलिया
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गौरैया का चहकना, खूब मचाना शोर।
नित्य हुआ करता स्वयं, होती ज्यों ही भोर।
होती ज्यों ही भोर, सभी को लगती प्रियकर।
खुल जाती है नींद, छूट जाता तब बिस्तर।
कहते वैद्य सुरेन्द्र, मजा ज्यों पुरवैया का।
अति शुभकारी दृश्य, चहकना गौरैया का।
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नयी सभ्यता संस्कृति, खूब बढ़ रही आज।
और भरी ऊंची बहुत, मानव ने परवाज़।
मानव ने परवाज़, मगर नन्ही गौरैया।
ढूंढ रही है नित्य, मिलेगा कहां खिवैया।
खतरे में अस्तित्व, प्रदूषण हरपल बढ़ता।
गौरैया हित श्राप, बन गई नयी सभ्यता।
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-सुरेन्द्रपाल वैद्य