एक दिया ऐसा हूँ मैं…
एक दिया ऐसा हूँ मैं…
एक दिया ऐसा हूँ मैं ,
वर्षों से अहर्निश जलता हूँ ।
देख तेरी कुटिया को प्रतिदिन ,
रवि सा प्रखर ,ऊष्म करता हूँ।
थकता नहीं निरन्तर जलता ,
आलोकित मैं प्रांगण करता हूँ।
मिटाकर नित, घन तिमिर अंधेरा ,
झंझावातों से नहीं डरता हूँ।
स्नेहमयी आभा लेकर मैं ,
हर पल ये कहता हूँ।
अनुभूत करो मेरे तापों को ,
मन को निराश क्यों करता है ?
माटी प्रदीप है क्षणिक ज्योति ,
क्षण भर ही तो , दिख पाता है ।
जिसके चकाचौंध में, भ्रमित होता नित ,
कभी काम कहाँ आता है।
पहचानोगे किस दिन तुम हमको ,
कुम्हार रचित , मृण दिया मैं हूँ ना।
एहसास करो मेरी उर्जा का ,
बेजान क्यों पड़ा रहता है ।
मैं तो प्राण दीप हूँ ईश्वर का,
तेरे संग संग ही चलता हूँ ।
धड़कता है ये दिल, मेरी ऊर्जा से ,
तेरी साँसों में भी बसता हूँ ।
तू सजग हो मुझको, समझ सको तो ,
आत्म दीप बन, जगमगाऊँ मैं ।
तेरी आत्मा को परमात्मा से ,
आत्मसात करा दूँ ,खुद पर ही इठलाऊँ मैं।
मैं तो प्राण दीप, हूँ ईश्वर का ,
हर पल अंतस में जलता हूँ ।
मैं प्रेम दीप बन कर जग में ,
आज दिल का राग सुनाता हूँ ।
मैं प्रेम दीप बन कर जग में ,
आज दिल का राग सुनाता हूँ ।
मौलिक एवं स्वरचित
सर्वाधिकार सुरक्षित
© ® मनोज कुमार कर्ण
कटिहार ( बिहार )
तिथि – ०१/०१/२०२३
पौष,शुक्ल पक्ष,दशमी ,रविवार
विक्रम संवत २०७९
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