उसे जब भूख लगती है वो दाना ढूँढ लेता है
उसे जब भूख लगती है वो दाना ढूँढ लेता है
परिंदा शाम को फिर आशियाना ढूँढ लेता है
वो जिसका घर नहीं होता उसे भी नींद आती है
वो सोने के लिए अपना ठिकाना ढूँढ लेता है
निभाने को यहाँ अब सब नए रिश्ते निभाते हैं
जिसे दिल से निभाना हो पुराना ढूँढ लेता है
वो ऐसा भी नहीं है जो मुझे ख़ंजर से मारेगा
मुझे कुछ रंज हो ऐसा ही ताना ढूँढ लेता है
उसे जब छोड़ जाते हैं उसी के चाहने वाले
वो मुझसे बात करने का फ़साना ढूँढ लेता है
फ़क़त ख़ाना-बदोशों को भटकते देखा है हमने
निकलकर तीर भी अपना निशाना ढूँढ लेता है
जो माँझी रोज़ मीलों दूर रस्तों से गुज़रता था
पहाड़ों पर वही रस्ता बनाना ढूँढ लेता है
~अंसार एटवी