उद्वेलित कामनाओं के साथ
चंचल मन की
उमंगों के साथ,
तिरोहित होती
तरंगों के साथ;
उद्वेलित औ’ उद्वेगित
कामनाओं के साथ,
भय से भीति
संवेदनाओं के साथ;
ताडि़त कल्पनाओं की
उडा़नों के साथ;
फिर रहा हूँ क्षितिज से बिछड़ती रवि-किरणों सम,
नैराश्य के अंबुद में
गोते लगाता
हिम कणों में
ठिठुरता भिगोता
इच्छाओं के यज्ञ में
स्व की समिधा देता
शून्य की विचरता
से संत्रस्त होता
पलायित देह को
संग में ढोता
दलित आत्मा को
सांत्वना देता
पर परिणति…..! हाँ, जानता हूँ…
समष्टि का व्यष्टि हो जाना
एक बूँद धुएँ का,
शून्य में
विलीन हो जाना…
और क्या!
क्लांत को विश्रांति मिल गई!
ओह नहीं, नहीं…
क्या शांति मिल गई…?
क्रमशः दोहराव समय का होगा
आदि से चक्र फिर
अंत की ओर होगा
यत्न फिर…….
संभवत:
मोक्ष का होगा….
सोनू हंस✍✍✍