उदर क्षुधा
अलस्सुबह उठते ही
शुरू हो जाती है,
जद्दोजहद,
जिंदगी के हर
मध्यस्थ से,
रणभूमि के
रणबांकुरे-सी।
उदर क्षुधा
उकसाती है,
बेबस बनाती है,
पिंजरे के दाड़िमप्रिय-सी।
निराश्रय मनुज
मड़ई से निकल
पथरीले मग का
रफ़ीक बनता है
सबकी बुभुक्षा
शांत करने हेतु।
थका-मांदा
गोधूलि को लौटता है
कोल्हू के बैल-सा
अपनी मांद में
और
पस्त होकर
निढ़ाल हो जाता है,
पुनः
उदराशना से
सामुख्य पाने को।