उत्स जय का खोजता हूँ
है मरण भी दूर मुझसे,
ध्येय की है धरा निर्मल,
मिट गए हैं द्वेष स्थिर,
बस निशा बाकी है हल्की,
कूँजती विजय-कोकिल की ध्वनि,
रिस रही है मंद गति से,
विजयरथ को थामने को,
चित्त को मैं रोकता हूँ,
उत्स जय का खोजता हूँ।।1।।
दिख रहीं है जो रश्मियाँ,
त्याग और बलिदान की हैं,
भेद मिट जाने को हैं तत्पर,
स्नेह दीक्षित हर दिशा में,
बहुत कुछ बाकी परिधि में,
सजग रहना ही सहज है,
विकट शत्रु से सामने को,
चित्त को मैं रोकता हूँ,
उत्स जय का खोजता हूँ।।2।।
चल पड़ा हूँ मैं अकेला,
देहरूपी मशाल लेकर,
ठोकरों पर, ठोकरें खा,
समयरूपी जंगलों में,
सोखकर जग की बुराई,
जग स्वयं में है पंकिल,
उन दलदलों में तैरनों को,
चित्त को मैं रोकता हूँ,
उत्स जय का खोजता हूँ।।3।।
उभय बिन्दु पर खड़ा हूँ,
लक्ष्य पाने को अड़ा हूँ,
शत्रु तो व्यवधान करते,
अपने शस्त्रों से सजा हूँ,
गीत सुनता हूँ जीवन के,
अपनी कविता कैसे सुनाऊँ,
उन बहकते कानों के हित,
चित्त को मैं रोकता हूँ,
उत्स जय का खोजता हूँ।।4।।
^^उत्स-स्रोत,उद्भव स्थान।
***अभिषेक पाराशर***