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6 Jul 2021 · 1 min read

उत्कट पीर यह मेरी बारहमासी…..

उत्कट पीर यह मेरी बारह मासी…

उत्कट पीर यह मेरी बारह मासी
घिरी अर्द्धरात्रि-सी गहन उदासी

हैं नयन निमीलित, गैरिक वसना
बैठा मन के भीतर एक संन्यासी

रूठा चाँद, मन तम-आच्छादित
पसरी चतुर्दिक अँधेरी अमा-सी

किस-किस की चाह करे वो पूरी
लगी दर पे उसके भीड़ है खासी

सँवर जाते दिन औ रात मेरे भी
दिख जाती जो झलक जरा सी

नेह-धार सरस निसृत हो मन से
बही नदिया-सी रही खुद प्यासी

सोया चाँद समेट चाँदनी अपनी
साँस थमी हुई आस रुआँसी

दीप-प्रज्ज्वलित ये जीवन-बाती
तिल-तिल शबभर जले शमा-सी

‘सीमा’ बद्ध झिझकती सकुचती
उझक देखती प्रिय प्रियतमा-सी

कभी उतरे चाँद मेरे भी अंगना
हो कभी तो यहाँ भी पूरनमासी

– © सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद

2 Likes · 2 Comments · 238 Views
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