उत्कट पीर यह मेरी बारहमासी…..
उत्कट पीर यह मेरी बारह मासी…
उत्कट पीर यह मेरी बारह मासी
घिरी अर्द्धरात्रि-सी गहन उदासी
हैं नयन निमीलित, गैरिक वसना
बैठा मन के भीतर एक संन्यासी
रूठा चाँद, मन तम-आच्छादित
पसरी चतुर्दिक अँधेरी अमा-सी
किस-किस की चाह करे वो पूरी
लगी दर पे उसके भीड़ है खासी
सँवर जाते दिन औ रात मेरे भी
दिख जाती जो झलक जरा सी
नेह-धार सरस निसृत हो मन से
बही नदिया-सी रही खुद प्यासी
सोया चाँद समेट चाँदनी अपनी
साँस थमी हुई आस रुआँसी
दीप-प्रज्ज्वलित ये जीवन-बाती
तिल-तिल शबभर जले शमा-सी
‘सीमा’ बद्ध झिझकती सकुचती
उझक देखती प्रिय प्रियतमा-सी
कभी उतरे चाँद मेरे भी अंगना
हो कभी तो यहाँ भी पूरनमासी
– © सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद